हाड़ मांस का लोथा,,,,

हाड़ मांस का बना ये लोथा
जिसको कहते हैं काया,
एक सांस की सच्ची डोर ही
यारो इसे चलाती है,
हर पल इन सांसों की कीमत
ये काया ही चुकाती हैं,,,,,2
लोभ मोह लालच रूपी
बसी है इसमें माया,
इस माया ने ही यारो इस
काया को बहुत भरमाया,
हाड़ मांस का बना ये लोथा
जिसको कहते काया,,,,,,2
जब क्रोध की तपिश ये आती है
पल भर में ही ये तन जाती हैं,
तन मन में ज्वाला सी उठती हैं
ये तेज अगन सी दहक जाती है,
पर प्रेम सुधा जो बरसे इस पर ,
तो ये झट से मोम हो जाती हैं,
ये सारा खेल खेलती माया
जो इस काया को बहुत नचाती हैं, हाड़ मांस का बना ये लोथा
जिसको कहते काया हैं,,,,,,2
कभी भीड़ में भारी पड़ती
कभी तन्हा रह जाती हैं,
कभी झुंड के झुंड संघ इसके
चलते तो कभी खुद से ही डर जाती है,
ये काया बड़ी निराली हैं
जिसकी सांसे सदा करती
रखवाली हैं,
हाड़ मांस का बना ये लोथा
जिसको कहते काया है,,,,,,2
सांसों का ही सारा खेल है
इस काया के भीतर,
जो सांसों का संघ छूटा तो
ये छड़ भर में मिट जायेगी,
बिन सांसों के ये काया पल
भर में माटी बन जाएगी ,
इस लिए तो मैं कहता हु
हाड़ मांस का बना ये लोथा
जिसको कहते काया हैं,,,,,,,,2
कवि: रमेश हरीशंकर तिवारी
( रसिक बनारसी)

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